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सांविधानिक विधि

आपराधिक मामलों में अंतर न्यायालय अपील

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 10-Oct-2023

श्री देबा प्रसाद दत्ता बनाम असम राज्य और अन्य।

एकल न्यायाधीश वाली पीठ द्वारा जारी आदेश या फैसले को चुनौती देने के लिये अंतर न्यायालय अपील (Intra Court Appeal) का कोई प्रावधान नहीं है।

गौहाटी उच्च न्यायालय

स्रोत: गौहाटी उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, गौहाटी उच्च न्यायालय (HC) ने श्री देबा प्रसाद दत्ता बनाम असम राज्य और अन्य के मामले में फैसला सुनाया है कि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के तहत आपराधिक रिट क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए एकल न्यायाधीश वाली पीठ द्वारा जारी किये गए आदेश या निर्णय को चुनौती देने के लिये इंट्रा-कोर्ट रिट अपील का कोई प्रावधान नहीं है।

श्री देबा प्रसाद दत्ता बनाम असम राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 431 और 294 के साथ सार्वजनिक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम, 1984 की धारा 3 के तहत एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अपीलकर्ता द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और ट्रायल कोर्ट द्वारा उसके खिलाफ तय किये गए आरोपों को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की गई थी।
    • उक्त रिट याचिका को उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश वाली पीठ ने खारिज़ कर दिया था।
  • इसलिये, यह अंतर न्यायालय अपील इस न्यायालय की एकल पीठ द्वारा पारित एक आदेश से उत्पन्न होती है।
    • उच्च न्यायालय के नियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक आपराधिक मामले में एकल न्यायाधीश वाली पीठ द्वारा जारी आदेश के खिलाफ अंतर न्यायालय अपील की अनुमति को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं करते हैं।
  • अपीलकर्ता ने अपील दायर करते समय निम्नलिखित मामलों पर भरोसा किया:
    • मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम विसान कुमार शिव चरण लाल (2008): इस मामले में मुद्दा रिट क्षेत्राधिकार के अभ्यास के दौरान एकल न्यायाधीश द्वारा किये गए फैसले को चुनौती देने वाली डिवीजन बेंच को प्रस्तुत एक लेटर पेटेंट अपील की वैधता से संबंधित था। इस मामले में एकल न्यायाधीश ने श्रम न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर रिट याचिका को खारिज़ कर दिया था।
    • सूर्य देव राय बनाम राम चंदर राय और अन्य (2003): यह मामले इस सवाल के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 39 नियम 12 आदेश के अनुसार जारी अंतरिम निषेधाज्ञा को चुनौती देते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर करना उचित था।
    • धारीवाल टोबैको प्रोडक्ट्स लिमिटेड और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2008): इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सीपीसी की धारा 397 के तहत पुनरीक्षण दाखिल करने के वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत किसी आवेदन को खारिज़ करने का आधार नहीं हो सकती है। न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि जहाँ पुनरीक्षण आवेदन वर्जित है, वहाँ भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत उपचार उपलब्ध होगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मुख्य न्यायाधीश संदीप मेहता और न्यायमूर्ति कार्डक एटे की खंडपीठ ने पाया कि ये निर्णय आपराधिक मामलों में अंतर न्यायालय अपील की वैधता के विशिष्ट मुद्दे से संबंधित नहीं थे।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि हमारा दृढ़ विश्वास है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत आपराधिक रिट मामलों में अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय एकल न्यायाधीश की पीठ द्वारा दिये गए आदेश या निर्णय के खिलाफ अंतर न्यायालय अपील का कोई प्रावधान नहीं है।
    • यह भी माना गया कि, गौहाटी उच्च न्यायालय के नियमों में इस मामले पर स्पष्ट मार्गदर्शन की अनुपस्थिति को देखते हुए, नियमों में संशोधन करके इस विसंगति को तुरंत सुधारना आवश्यक है ताकि स्पष्ट रूप से कहा जा सके कि किसी आदेश के खिलाफ कोई अंतर न्यायालय अपील की अनुमति नहीं है।

इसमें कौन-से कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

अंतर न्यायालय अपील (Intra Court Appeal)

  • यदि एकल न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील दायर की जानी हो तो इसे अंतर न्यायालय अपील के रूप में जाना जाता है।
  • ऐसी अपील दायर करने की सीमा अवधि 30 दिन है।

भारत का संविधान, 1950

अनुच्छेद 226 में उच्च न्यायालयों के रिट क्षेत्राधिकार के बारे में उल्लेख किया गया है:

अनुच्छेद 226 - कुछ रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति - (1) अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये और किसी अन्य प्रयोजन के लिये उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति होगी।

(2) किसी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निदेश, आदेश या रिट निकालने की खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में, जिनके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिये वादहेतुक पूर्णत: या भागत: उत्पन्न होता है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी उच्च न्यायालय द्वारा भी, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवास-स्थान उन राज्यक्षेत्रों के भीतर नहीं है।

(3) जहाँ कोई पक्षकार, जिसके विरुंद्ध खंड (1) के अधीन किसी याचिका पर या उससे संबंधित किसी कार्यवाही में व्यादेश के रूप में या रोक के रूप में या किसी अन्य रीति से कोई अंतरिम आदेश-

(क) ऐसे पक्षकार को ऐसी याचिका की और ऐसे अंतरिम आदेश के लिये अभिवाक के समर्थन में सभी दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ, और

(ख) ऐसे पक्षकार को सुनवाई का अवसर,

दिये बिना किया गया है, ऐसे आदेश को रद्द कराने के लिये उच्च न्यायालय को आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रतिलिपि उस पक्षकार को, जिसके पक्ष में ऐसा आदेश किया गया है या उसके काउंसेल को देता है, वहाँ उच्च न्यायालय उसकी प्राप्ति को तारीख से या ऐसे आवेदन की प्रतिलिपि इस प्रकार दिये जाने की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर, इनमें से जो भी पश्चातवर्ती हो, या जहाँ उच्च न्यायालय उस अवधि के अंतिम दिन बंद है, वहाँ उसके ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति से पहले जिस दिन उच्च न्यायालय खुला है, आवेदन को निपटाएगा और यदि आवेदन इस प्रकार नहीं निपटाया जाता है तो अंतरिम आदेश, यथास्थिति, उक्त अवधि की या उक्त ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति पर रद्द हो जाएगा।

(4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा।

  • निर्णयज विधि:
    • जगदीश प्रसाद शास्त्री बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1970): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यदि किसी रिट याचिका में गलत तथ्यात्मक मैट्रिक्स शामिल है और उच्च न्यायालय इसे अनुच्छेद 226 के तहत उच्च विशेषाधिकार रिट की मांग करने वाली याचिका के माध्यम से समाधान के लिये अनुपयुक्त मानता है तो यह ऐसे मामलों को संबोधित करने से इनकार करने का अधिकार रखता है।
    • नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993): इस मामले में, न्याय हासिल करने और मौलिक अधिकारों को लागू करने में अनुच्छेद 226 की भूमिका को दोहराया गया और हिरासत में होने वाली मौतों के मामलों में मुआवजा देने के महत्त्व पर जोर दिया गया।